मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया notes, Class 10 history chapter 5 notes in hindi

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10 Class History Chapter 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया Notes in hindi

TextbookNCERT
ClassClass 10
SubjectHistory
Chapter Chapter 5
Chapter Nameमुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया
CategoryClass 10 History Notes in Hindi
MediumHindi

मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया notes, Class 10 history chapter 5 notes in hindi. जिसमे हम शुरुआती छपी किताबें , यूरोप में मुद्रण का आना , मुद्रण क्रांति और उसका असर , भारत का मुद्रण संसार , धार्मिक सुधार और सार्वजनिक बहसें , प्रकाशन के नए रुप , प्रिंट और प्रतिबंधो आदि के बारे में पड़ेंगे ।

Class 10 History Chapter 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया Notes in hindi

📚 अध्याय = 5 📚
💠 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया 💠

❇️ शुरुआती छपी किताबें :-

🔹 प्रिंट टेक्नॉलोजी का विकास सबसे पहले चीन , जापान और कोरिया में हुआ । 

🔹 चीन में 594 इसवी के बाद से ही लकड़ी के ब्लॉक पर स्याही लगाकर उससे कागज पर प्रिंटिंग की जाती थी । 

🔹 उस जमाने में कागज पतले और झिरीदार होते थे । ऐसे कागज पर दोनों तरफ छपाई करना संभव नहीं था । कागज के दोनों सिरों को टाँके लगाकर फिर बाकी कागज को मोड़कर एकॉर्डियन बुक बनाई जाती थी ।

❇️ उस जमाने मे किस तरह की किताबें छापी जाती थी और उन्हें को पढ़ता था ?

🔹  एक लंबे समय तक चीन का राजतंत्र ही छपे हुए सामान का सबसे बड़ा उत्पादक था । चीन के प्रशासनिक तंत्र में सिविल सर्विस परीक्षा द्वारा लोगों की बहाली की जाती थी । 

🔹 इस परीक्षा के लिये चीन का राजतंत्र बड़े पैमाने पर पाठ्यपुस्तकें छपवाता था । सोलहवीं सदी में इस परीक्षा में शामिल होने वाले उम्मीदवारों की संख्या बहुत बढ़ गई । इसलिये किताबें छपने की रफ्तार भी बढ़ गई ।

❇️ तो क्या केवल विद्यार्थीयो के लिए छपाई होती थी :-

🔹 सत्रहवीं सदी तक चीन में शहरी परिवेश बढ़ने के कारण छपाई का इस्तेमाल कई कामों में होने लगा । अब छपाई केवल बुद्धिजीवियों या अधिकारियों तक ही सीमित नहीं थी ।

🔹  अब व्यापारी भी रोजमर्रा के जीवन में छपाई का इस्तेमाल करने लगे ताकि व्यापार से जुड़े हुए आँकड़े रखना आसान हो जाये । 

🔹 कहानी , कविताएँ , जीवनी , आत्मकथा , नाटक आदि भी छपकर आने लगे । इससे पढ़ने के शौकीन लोगों के शौक पूरे हो सकें । 

🔹 खाली समय में पढ़ना एक फैशन जैसा बन गया था । रईस महिलाओं में भी पढ़ने का शौक बढ़ने लगा और उनमें से कईयों ने तो अपनी कविताएँ और कहानियाँ भी छपवाईं ।

❇️ जापान में छापाई कैसे आया :-

🔹 प्रिंट टेक्नॉलोजी को बौद्ध धर्म के प्रचारकों ने 768 से 770 इसवी के आस पास जापान लाया ।

🔹 बौद्ध धर्म की किताब डायमंड सूत्र ; जो 868 इसवी में छपी थी ; को जापानी भाषा की सबसे पुरानी किताब माना जाता है । 

🔹 उस समय पुस्तकालयों और किताब की दुकानों में हाथ से छपी किताबें और अन्य सामग्रियाँ भरी होती थीं । 

🔹 किताबें कई विषयों पर उपलब्ध थीं ; जैसे महिलाओं , संगीत के साज़ों , हिसाब – किताब , चाय अनुष्ठान , फूलसाज़ी , शिष्टाचार और रसोई पर लिखी , आदि ।

❇️ यूरोप में मुद्रण का आना :-

सिल्क रूट के माध्यम से ग्याहरवीं शताब्दी में चीनी कागज़ यूरोप पहुँचा ।

1925 में मार्को पोलो चीन से मुद्रण का ज्ञान लेकर इटली गया ।

किताबों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए अब पुस्तक विक्रेता सुलेखक या कातिब को रोजगार देने लगे ।

हस्तलिखित पांडुलिपियों के माध्यम से पुस्तकों की भारी माँग को पूर्ण कर पाना असंभव था ।

❇️ गुटेनबर्ग का प्रिंटिंग प्रेस :-

🔹 योहान गुटेन्बर्ग के पिता व्यापारी थे और वह खेती की एक बड़ी रियासत में पल बढ़कर बड़ा हुआ । वह बचपन से ही तेल और जैतून पेरने की मशीनें देखता आया था । बाद में उसने पत्थर पर पॉलिश करने की कला सीखी , फिर सुनारी और अंत उसने शीशे की इच्छित आकृतियों में गढ़ने में महारत हासिल कर ली ।

🔹 अपने ज्ञान और अनुभव का इस्तेमाल उसने अपने नए अविष्कार में किया । जैतून प्रेस ही प्रिंटिंग प्रेस का आदर्श बनी और साँचे का उपयोग अक्षरों की धातुई आकृतियों को गढ़ने के लिए किया गया । 

🔹 गुटेनबर्ग ने 1448 तक अपना यह यंत्र मुकम्मल कर लिया और इससे सबसे पहली जो पुस्तक छपी वह थी बाइबिल । 

🔹 शुरू – शुरू में छपी किताबें अपने रंग रूप में और साज – सज्जा में हस्तलिखित जैसी ही थी । 1440 -1550 के मध्य यूरोप के ज्यादातर देशों में छापेखाने लग गए थे ।

❇️ प्लाटेन :-

🔹 लेटरप्रेस छपाई में प्लाटेन एक बोर्ड होता है , जिसे कागज़ के पीछे दबाकर टाइप की छाप ली जाती थी । पहले यह बोर्ड काठ का होता था , बाद में इस्पात का बनने लगा ।

❇️ मुद्रण क्रांति और उसका असर :-

  • छापेखाने के आने से एक नया पाठक वर्ग पैदा हुआ । 
  • छपाई में लगने वाली लागत व श्रम कम हो गया । 
  • छपाई से किताबों की कीमत गिरी । 
  • बाजार किताबों से पट गई , पाठक वर्ग भी बृहत्तर होता गया । 
  • मुद्रण क्रांति के कारण पहले जो जनता श्रोता थी वह अब पाठक में बदल गई । 
  • अब किताबें समाज के व्यापक तबकों तक पहुँच चुकी थी ।

❇️ धार्मिक विवाद एवं प्रिंट का डर :-

अधिकांश लोगों को यह भय था कि अगर मुद्रण पर नियंत्रण नही किया गया तो विद्रोही एवं अधार्मिक विचार पनपने लगेंगें ।

धर्म सुधारक मार्टिन लूथर किंग ने अपने लेखों के माध्यम से कैथोलिक चर्च की कुरीतियों का वर्णन किया ।

टेस्टामेंट के लूथर के तर्जुमें के कारण चर्च का विभाजन हो गया एवं और प्रोटेस्टेंट धर्मसुधार की शुरूआत हुई ।

धर्म – विरोधियों को सुधारने हेतु रोमन चर्च ने इंकविजिशन आरंभ किया ।

1558 में रोमन चर्च ने प्रतिबंधित किताबों की सूची प्रकाशित की ।

❇️ पढ़ने का जुनून :-

🔹  सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में यूरोप में साक्षरता के स्तर में काफी सुधार हुआ । अठारहवीं सदी के अंत तक यूरोप के कुछ भागों में साक्षरता का स्तर तो 60 से 80 प्रतिशत तक पहुंच चुका था । 

🔹 पत्रिकाएँ , उपन्यास , पंचांग , आदि सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबें थीं । 

🔹 छपाई के कारण वैज्ञानिकों और तर्कशास्त्रियों के नये विचार और नई खोज सामान्य लोगों तक आसानी से पहुँच पाते थे । किसी भी नये आइडिया को अब अधिक से अधिक लोगों के साथ बाँटा जा सकता था और उसपर बेहतर बहस भी हो सकती थी । 

❇️ मुद्रण संस्कृति और फ्रांसीसी क्रांति :-

🔹 कई इतिहासकारों का मानना है कि प्रिंट संस्कृति ने ऐसा माहौल बनाया जिसके कारण फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत हुई । इनमें से कुछ कारण निम्नलिखित हैं :-

  • छपाई के चलते विचारों का प्रसार , उनके लेखन ने परंपरा , अविश्वास और निरकुंशवाद की आलोचना की । 
  • रीति – रिवाजों की जगह विवेक के शासन पर बल दिया । 
  • चर्च की धार्मिक और राज्य की निरकुंश सत्ता पर हमला । 
  • छपाई ने वाद विवाद की नई संस्कृति को जन्म दिया ।

❇️ उन्नीसवीं सदी :-

🔹 उन्नीसवीं सदी में यूरोप में साक्षरता में जबरदस्त उछाल आया । इससे पाठकों का एक ऐसा नया वर्ग उभरा जिसमें बच्चे , महिलाएँ और मजदूर शामिल थे । 

🔹 बच्चों की कच्ची उम्र और अपरिपक्व दिमाग को ध्यान में रखते हुए उनके लिये अलग से किताबें लिखी जाने लगीं । कई लोककथाओं को बदल कर लिखा गया ताकि बच्चे उन्हें आसानी से समझ सकें ।

🔹 कई महिलाएँ पाठिका के साथ साथ लेखिका भी बन गईं और इससे उनका महत्व और बढ़ गया । 

🔹 किराये पर किताब देने वाले पुस्तकालय सत्रहवीं सदी में ही प्रचलन में आ गये थे । अब उस तरह के पुस्तकालयों में व्हाइट कॉलर मजदूर , दस्तकार और निम्न वर्ग के लोग भी अड्डा जमाने लगे ।

❇️ प्रिंट तकनीक में अन्य सुधार :-

🔹  न्यू यॉर्क के रिचर्ड एम . हो ने उन्नीसवीं सदी के मध्य तक शक्ति से चलने वाला बेलनाकार प्रेस बना लिया था । इस प्रेस से एक घंटे में 8,000 पेज छापे जा सकते थे ।

🔹 उन्नीसवीं सदी के अंत में ऑफसेट प्रिंटिंग विकसित हो चुका था । ऑफसेट प्रिंटिंग से एक ही बार में छ : रंगों में छपाई की जा सकी थी ।

🔹 बीसवीं सदी के आते ही बिजली से चलने वाले प्रेस भी इस्तेमाल में आने लगे । इससे छपाई के काम में तेजी आ गई । 

🔹 इसके अलावा प्रिंट की टेक्नॉलोजी में कई अन्य सुधार भी हुए । सभी सुधारों का सामूहिक सार हुआ जिससे छपी हुई सामग्री का रूप ही बदल गया ।

❇️ किताबें बेचने के नये तरीके :-

🔹 उन्नीसवीं सदी में कई पत्रिकाओं में उपन्यासों को धारावाहिक की शक्ल में छापा जाता था । इससे पाठकों को उस पत्रिका का अगला अंक खरीदने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता था । 

🔹 1920 के दशक में इंग्लैंड में लोकप्रिय साहित्य को शिलिंग सीरीज के नाम से सस्ते दर पर बेचा जाता था ।

🔹 किताब के ऊपर लगने वाली जिल्द का प्रचलन बीसवीं सदी में शुरु हुआ ।

🔹  1930 के दशक की महा मंदी के प्रभाव से पार पाने के लिए पेपरबैक संस्करण निकाला गया जो कि सस्ता हुआ करता था ।

❇️ भारत का मुद्रण संसार :-

🔹 भारत में संस्कृत , अरबी , फारसी और विभिन्न श्रेत्रीय भाषाओं में हस्त लिखित पांडुलिपियों की पुरानी और समृद्ध परंपरा थी ।

🔹 पांडुलिपियाँ ताड़ के पत्तों या हाथ से बने कागज पर नकल कर बनाई जाती थी उनकी उम्र बढाने के विचार से उन्हें जिल्द या तख्तियों में बाँध दिया जाता था । 

🔹 पूर्व औपनिवेशक काल में बंगाल में ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक पाठशालाओं का बड़ा जाल था , लेकिन विद्यार्थी आमतौर पर किताबे नहीं पढते थे । 

🔹 गुरू अपनी याद्दाश्त से किताबें सुनाते थे , और विद्यार्थी उन्हें लिख लेते थे । इस तरह कई सारे लोग बिना कोई किताब पढ़े साक्षर बन जाते थे ।

❇️ पाण्डुलिपियाँ :-

  • हाथों से लिखी पुस्तकों को पांडुलिपियाँ कहते हैं ।

❇️ इनके प्रयोग की सीमाएँ :-

किताबों की बढ़ती माँग , पांडुलिपियों से पूरी नहीं होने वाली थी । 

नकल उतारना बेहद खर्चीला , समय अधिक लगना , माँग पूरी ना होना । 

ये बहुत नाजुक होती थीं । रखरखाव में , लाने ले जाने में मुश्किल आती थी ।

उपरोक्त समस्याओं की वजह से उनका से था । आदान प्रदान मुश्किल था ।

❇️ मुद्रण संस्कृति का भारत आना :-

प्रिटिंग प्रेस पहले- पहल सोलहवीं सदी में भारत के गोवा में पुर्तगाली धर्म प्रचारक के साथ आया । 

1674 ई . तक कोकणी एवं कन्नड़ भाषाओं में लगभग 50 पुस्तकें छापी जा चुकी थी ।

कैथोलिक पुजारियों ने 1579 में कोचीन में पहली तमिल किताब छापी और 1713 में उन्होंने ही पहली मलयालम पुस्तक छापी । 

जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने 1780 से बंगाल गज़ट नामक एक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन आरम्भ किया । 

गंगाधर भट्टाचार्य ने बंगाल गजट का प्रकाशन आरंभ किया ।

बंगाल गैजेट ही पहला भारतीय अखबार था ; जिसे गंगाधर भट्टाचार्य ने प्रकाशित करना शुरु किया था । 

❇️ धार्मिक सुधार और सार्वजनिक बहसें :-

🔹 प्रिंट संस्कृति से भारत में धार्मिक , सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर बहस शुरु करने में मदद मिली । लोग कई धार्मिक रिवाजों के प्रचलन की आलोचना करने लगे ।

🔹  1821 से राममोहन राय ने संबाद कौमुदी प्रकाशित करना शुरु किया । इस पत्रिका में हिंदू धर्म के रूढ़िवादी विचारों की आलोचना होती थी । ऐसी आलोचना को काटने के लिए हिंदू रूढ़ीवादियों ने समाचार चंद्रिका नामक पत्रिका निकालना शुरु किया ।

🔹 1810 में कलकत्ता में तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस को छापा गया । 1880 के दशक से लखनऊ के नवल किशोर प्रेस और बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस ने आम बोलचाल की भाषाओं में धार्मिक ग्रंथों को छापना शुरु किया ।

🔹 इस तरह से प्रिंट के कारण धार्मिक ग्रंथ आम लोगों की पहुँच में आ गये । इससे नई राजनैतिक बहस की रूपरेखा निर्धारित होने लगी । प्रिंट के कारण भारत के एक हिस्से का समाचार दूसरे हिस्से के लोगों तक भी पहुंचने लगा । इससे लोग एक दूसरे के करीब भी आने लगे । 

❇️ मुस्लिमों ने मुद्रण संस्कृति को कैसे लिया :-

🔹  1822 में फारसी में दो अखबार शुरु हुए जिनके नाम थे जाम – ए – जहाँ – नामा और शम्सुल अखबार । उसी साल एक गुजराती अखबार भी शुरु हुआ जिसका नाम था बम्बई समाचार ।

🔹 उत्तरी भारत के उलेमाओं ने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का इस्तेमाल करते हुए धर्मग्रंथों के उर्दू और फारसी अनुवाद छापने शुरु किये । उन्होंने धार्मिक अखबार और गुटके भी निकाले । 

🔹 देवबंद सेमिनरी की स्थापना 1867 में हुई । इस सेमिनरी ने एक मुसलमान के जीवन में सही आचार विचार को लेकर हजारों हजार फतवे छापने शुरु किये ।

❇️ प्रकाशन के नये रूप :-

🔹 शुरु शुरु में भारत के लोगों को यूरोप के लेखकों के उपन्यास ही पढ़ने को मिलते थे । वे उपन्यास यूरोप के परिवेश में लिखे होते थे । इसलिए यहाँ के लोग उन उपन्यासों से तारतम्य नहीं बिठा पाते थे ।

🔹 बाद में भारतीय परिवेश पर लिखने वाले लेखक भी उदित हुए । ऐसे उपन्यासों के चरित्र और भाव से पाठक बेहतर ढंग से अपने आप को जोड़ सकते थे । लेखन की नई नई विधाएँ भी सामने आने लगीं ; जैसे कि गीत , लघु कहानियाँ , राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर निबंध , आदि । 

🔹 उन्नीसवीं सदी के अंत तक एक नई तरह की दृश्य संस्कृति भी रूप ले रही थी । कई प्रिंटिंग प्रेस चित्रों की नकलें भी भारी संख्या में छापने लगे । राजा रवि वर्मा जैसे चित्रकारों की कलाकृतियों को अब जन समुदाय के लिये प्रिंट किया जाने लगा । 

🔹 1870 आते आते पत्रिकाओं और अखबारों में कार्टून भी छपने लगे । ऐसे कार्टून तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर कटाक्ष करते थे ।

❇️  प्रिंट और महिलाएँ :-

🔹 जेन ऑस्टिन , ब्राण्ट बहनें , जार्ज इलियट आदि के लेखन से नयी नारी की परिभाषा उभरीः जिसका व्यक्तित्व सुदृढ़ था , जिसमें गहरी सुझ बुझ थी , और जिसका अपना दिमाग था , अपनी इच्छाशक्ति थी ।

🔹 महिलाओं की जिंदगी और उनकी भावनाएँ बड़ी साफगोई और गहनता से लिखी जाने लगी । इसलिए मध्यवर्गीय घरों में महिलाओं का पढना भी पहले से बहुत ज्यादा हो गया ।

  • 1876 में रशसुन्दरी देवी की आत्मकथा आमार जीबन प्रकाशित हुई । 
  • 1880 में ताराबाई शिंदे और पंडित रमाबाई ने उच्च जाति की नारियों की दयनीय हालत पर रोष जाहिर किया । 
  • राम चड्ढा ने औरतों को आज्ञाकारी बीवियाँ बनने की सीख देने से उद्देश्य से अपनी बेस्ट सेलिंग कृति स्त्री धर्म विचार लिखी । 
  • 1871 ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक गुलामगिरी में जाति प्रथा के अत्याचारों पर लिखा ।

❇️ प्रिंट और गरीब जनता :-

🔹  मद्रास के शहरों में उन्नीसवीं सदी में सस्ती और छोटी किताबें आ चुकी थीं । इन किताबों को चौराहों पर बेचा जाता था ताकि गरीब लोग भी उन्हें खरीद सकें । 

🔹 बीसवीं सदी के शुरुआत से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना शुरु हुई । इन पुस्तकालयों के कारण लोगों तक किताबों की पहुँच बढ़ने लगी । कई अमीर लोग पुस्तकालय बनाने लगे ताकि उनके क्षेत्र में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ सके ।

🔹 कानपुर के मिल मजदूर काशीबाबा ने 1938 में छोटे और बड़े का सवाल लिख और छाप कर जातीय एवं वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता समझाने की कोशिश की ।

❇️ प्रिंट और प्रतिबंध :-

🔹  1798 के पहले तक उपनिवेशी शासक सेंसर को लेकर बहुत गंभीर नहीं थे । शुरु में जो भी थोड़े बहुत नियंत्रण लगाये जाते थे वे भारत में रहने वाले ऐसे अंग्रेजों पर लगायें जाते थे जो कम्पनी के कुशासन की आलोचना करते थे । 

🔹 1857 के विद्रोह के बाद प्रेस की स्वतंत्रत के प्रति अंग्रेजी हुकूमत का रवैया बदलने लगा । वर्नाकुलर प्रेस एक्ट को 1878 में पारित किया गया । 

🔹 इस कानून ने सरकार को वर्नाकुलर प्रेस में समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगाने के लिए अकूत शक्ति प्रदान की । 

🔹 राजद्रोही रिपोर्ट छपने पर अखबार को चेतावनी दी जाती थी । यदि उस चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था तो फिर ऐसी भी संभावना होती थी कि प्रेस को बंद कर दिया जाये और प्रिंटिंग मशीनों को जब्त कर लिया जाये ।

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